Thursday, January 5, 2012

बज़्म में नज़्म होता है,दिल की आह तन्हाई में ही निकलती है.






सूरज भी शांत, निगाहे लाल होती है जब शाम ढलती है......
वक़्त के साथ जिंदगी भी देखो क्या क्या रूप बदलती है.......


रेशा रेशा कतरा कतरा तिल तिल आखरी बूंद तक रोशनी
दिन में कौन पूछता है उस शमां को जो सारी रात जलती है.......


खाता खेलता मस्त रहता था, ना कोई शौक ना कोई आरज़ू
मुरव्वत सी थी जिस से आजकल वही तन्हाई बहुत खलती है.....



हमें हमेशा से आदत रही हँस के गले लगाने की,वही दिखाता है....
बज़्म में नज़्म होता है,दिल की आह तन्हाई में ही निकलती है......

1 comment:

  1. Well this one I would say was a little difficult to understand. You have started to use a lot of Urdu words in your poems recently which I would argue is great (as I also want to learn some Urdu) but I think you should also think of the people who are going to read it.

    Making the meaning of difficult sounding or rarely used words, available will make it easier for others to understand and appreciate your poems :)

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