Wednesday, February 29, 2012

उन्हें तजुर्बे के तरल में घोल के गाद बन लूँगा....




कुछ उमीदो की धुल इकठ्ठा करने निकला हु,
उन्हें तजुर्बे के तरल में घोल के गाद बन लूँगा ...

पेट खाली, जेब फटी,आँखों पे भूख का चश्मा
होठो पे प्यास की हँसी,चाल में डगमगाहट है....
उसपे लोग कभी मयकशी का इलज़ाम लगाते है...
कभी हसरत,कभी मेरी शराफत का मजाक उड़ाते है.....
मुझपे ही हँसते है,मेरी बेरुखी पे खिसियाते है ...

मै इस हँसी, इस तानाकशी को भी अपना लूँगा..
गैर वो समझते है समझे, मै तो उन्हें अपना बना लूँगा..
निकला हु जिस तलाश में अगर मिले तो अच्छा,
वर्ना मिट्टी को महबूब मान,वक़्त को उस्ताद बना लूँगा...
मै कुछ बनू ना बनू,
अपनी मसखरी कर कुछ दिलो को शाद बना लूँगा.....

जिंदगी के सफ़र में हर मोड़ पे लोग मिलते है....
कही बारिश भी होती है, कही अंगारे जलते है ....
लोगो को क्या, लोग तो सभी अच्छे होते है...
बस पल, कुछ लम्हे अच्छे और बुरे होते है....
हर बुरे अहसास को भूल कर ..
मै हर अच्छे पल को सीने से लगा लूँगा...
तुम भी रहना उन में ..
उन्हें मै अपनी याद बना लूँगा...
कुछ उमीदो की धुल इकठ्ठा करने निकला हु,
उन्हें तजुर्बे के तरल में घोल के गाद बन लूँगा....

2 comments:

  1. After a long time I have written a poem in muktak chand...

    and I really liked it....

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  2. Wah ! wah ! kya likha hai? Ustad, lazawaab. The best from you in recent times.
    ye to mujhse inspired hai, main jaanta hun ;) bahot badhiya.

    For you,

    धूल तो मैंने बहुत फांकी है, ठोकरें खा खा कर,
    तुमने तजुर्बे के तरल से गाद बना ली, और हम
    धुल के लड्डू बना कर चुप चाप खा गए... :D

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